’आई एम 24’ और सौरभ शुक्ला का लेखक अवतार

saurabh shukla

पिछले दिनों रिलीज़ हुई आई एम 24’ पुरानी फ़िल्म है। लेकिन इसके बहाने मैं पुन: दोहराता हूँ उस व्यक्ति के काम को जिसने कभी अनुराग कश्यप के साथ मिलकर ’सत्या’ लिखी थी और हमारे सिनेमा को सिरे से बदल दिया था। न जाने क्या हुआ कि हमने उसके बाद सौरभ शुक्ला की लेखकीय काबिलियत को सिरे से भुला दिया और उनपर से, उनके कामपर से अपनी निगाह हटा ली।

सौरभ शुक्ला ने अपनी निर्देशकीय पारी की शुरुआत जिस फ़िल्म से की थी, वो मुझे अभी तक याद है। दो घंटे की वो टेलिफ़िल्म उन्होंने नाइन गोल्ड के ’डाइरेक्टर्स कट’ के लिए बनाई थी और नाम था ’मिस्टर मेहमान’। छोटे कस्बे के जड़ सामाजिक संस्कारों के बीच बहुत ही खूबसूरती से पुराने रिश्तों में नएपन की, आज़ादी की बात करती ’मिस्टर मेहमान’ में नायक रजत कपूर थे और वहाँ से चला आता रजत कपूर और सौरभ शुक्ला का यह साथ ’आई एम 24’ तक जारी है। लेकिन सच यह भी है कि इसके आगे सौरभ शुक्ला ने जो फ़िल्में निर्देशित कीं, उनमें किसी को भी उल्लेखनीय नहीं कहा जा सकता। शायद वह समय ही ऐसा था। ’सत्या’ का एक लेखक अपनी रचनात्मक प्रखरता से समझौता न करने का प्रण लिए बार-बार प्रतिबंधित होता रहा और शराब के नशे में डूब गया, और दूसरे लेखक को उसकी प्रतिभा के साथ न्याय कर पाए, ऐसा कोई मौका दे ही नहीं पाया हमारा सिनेमा।

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सारे शहर की जगमग के भीतर है अँधेरा

बहुत दिनों बाद थियेटर में अकेले कोई फ़िल्म देखी. बहुत दिनों बाद थियेटर में रोया. बहुत दिनों बाद यूँ अकेले घूमने का मन हुआ. बहुत दिनों बाद लगा कि जिन्हें प्यार करता हूँ उन्हें जाकर यह कह दूँ कि मैं उनके बिना नहीं रह पाता. माँ की बहुत याद आयी. रिवोली से निकलकर सेन्ट्रल पार्क में साथ घूमते जोड़ों को निहारता रहा और प्यार के उस भोलेपन/अल्हड़पन का एक बार फ़िर कायल हुआ. निधि कुशवाहा याद आयी. मेट्रो में उतरती सीढ़ियों पर बैठकर चाय की चुस्कियां लेते हुए किसी लड़की के बालों की क्लिप सामने पड़ी मिली और मैं उसे अपना बचपन याद करता हुआ जेब में रख साथ ले आया. दसविदानिया आपके साथ बहुत कुछ करती है. ये उनमें से कुछ की झलक है.

दसविदानिया हास्य फ़िल्म नहीं है. इसकी एक बड़ी ख़ासियत मेरी नज़र में यह है कि इसमें ज़्यादातर मुख्य किरदार अन्य हास्य फ़िल्मों की तरह कैरीकैचर नहीं हैं. आजकल यह फ़िल्म में हास्य पैदा करने का सबसे आसान तरीका मान लिया गया है. अमर कौल, विवेक कौल, राजीव जुल्का, नेहा भानोट, गिटारिस्ट अंकल, सेल्सवुमन पूरबी जोशी सभी सामान्य जीते-जागते हमें अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में मिलते रहने वाले इंसान हैं जिनमें ना देखकर हँसने लायक कुछ है और ना ये बात-बात पर कोई जोक या पंच मारते हैं. हां कुछ कैरीकैचर हैं जैसे अमर का बॉस (सौरभ शुक्ला) जो हर वक्त कुछ ना कुछ खाता रहता है लेकिन यह उसी तरह का छौंक है जो सादा दाल को ‘दाल मखनी’ बना देता है. यह फ़िल्म तमाम प्रलोभनों के बावजूद अपनी ईमानदारी बनाकर रखती है और चारों तरफ़ एक ही दिशा में बहती हवा के बाद भी कोई गैरज़रूरी कॉमेडी का तड़का अपनी कहानी में नहीं लगाती. कहानी के साथ ईमानदारी और बॉक्स ऑफिस पर सफ़लता में शशांत शाह ने ईमानदारी को चुना है और इस ईमानदारी को फ़िल्म ही नहीं फ़िल्म के प्रोमोस में भी बनाकर रखा है. यह बात तब और भी ख़ास हो जाती है जब यह पता चले कि अपनी पहली फ़िल्म बना रहे शशांत शाह स्टार वन के मशहूर कॉमेडी शो ’दी ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो’ और ’रणवीर, विनय और कौन’ के निर्देशक हैं. दरअसल यह वहीं से निकली टीम है और फ़िल्म के कहानीकार अरशद सैयद इन दोनों धारावहिकों के भी प्रमुख पटकथा लेखक थे. और आप दसविदानिया में ’दि ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो’ के अनेक चेहरों विनय पाठक, रणवीर शौरी, गौरव गेरा, पूरबी जोशी को पहचान सकते हैं. यह साफ़ करता है कि यह नई पीढ़ी बात को गंभीरता से कहना भी उतना ही अच्छे से जानती है जितना हँसाना. खोसला का घोंसला, मिथ्या, रघु रोमियो, मनोरमा सिक्स फ़ीट अन्डर जैसी फ़िल्में इस बात को पुख़्ता करती हैं कि इस हँसी के पीछे एक गहरा छिपा दर्द है जो सालता रहता है. एक उदासी है जो पसरी दिखायी देती है मनोरमा सिक्स फ़ीट अन्डर के बीहड़/पीले/प्यासे कस्बों से दसविदानिया में बालकनी से दिखायी देती ऊंची-ऊंची इमारतों तक. आप अमर कौल को बरिश में भीगते हुए/ डमशिराज़ में आई लव यू कहते हुए देखें और आप समझ जायेंगे कि ऐसे मौकों पर कुछ कहने की भी ज़रूरत नहीं होती. न जाने इस बारिश में क्या चमत्कार था कि मैंनें देखा मैं भी अपनी आँखें पोंछ रहा था. मैज़िकल चार्ली चैप्लिन ने कहा था कि उन्हें बारिश इसलिये भाती है कि उसमें कोई उनके आंसू नहीं देख पाता. दसविदानिया में अमर कौल को भी यूँ रोने की ज़रूरत नहीं पड़ती और मुंबई की मशहूर ‘बिन-मौसम-बरसात’ आती है.

किसी भी किरदार को उसकी तयशुदा स्पेस से ज़्यादा जगह नहीं दी गयी है और रणवीर जैसे कलाकार भी दस मिनट के रोल में आते हैं. ऐसे में शीर्षक भूमिका निभाते विनय के लिये यह वन-मैन-शो है. विनय की ख़ास बात यहाँ यह है कि एक बहुत ही ’आम’ इंसान का रोल निभाते हुए भी उनकी स्क्रीन प्रेसेंस बहुत भारी है. लेकिन यह भारी स्क्रीन प्रेसेंस कहीं भी ’आम’ इंसान वाली भूमिका की तय सीमा नहीं लांघती. वो एक मरते हुए आदमी का रोल करते हुए भी आकर्षक बने रहते हैं. लेकिन यह आकर्षण सिर्फ़ दर्शकों को बांधे रखने तक जाता है, रोल के साथ नाइंसाफ़ी तक नहीं. गौरव गेरा (विवेक कौल की भूमिका में) मुझे विशेष पसंद आये. उनके गुस्से में एक सच्चाई थी. उनकी अदाकारी में एक सच्चाई थी. शायद उनके किरदार में एक सच्चाई थी. और वहीं विवेक के साथ बातचीत में शायद अमर का किरदार सबसे अच्छी तरह खुलता है. एक छोटा भाई शिकायती लहजे में कहता है कि अगर माँ को मेरी शादी से परेशानी थी तो आप तो जानते थे कि मैं ठीक कर रहा हूं. फ़िर आपने मेरा साथ क्यों नहीं दिया? क्यों मुझे घर से निकाल दिया? और जवाब में अमर कहता है कि तू बता विवेक मैं क्या करता, तुझे घर से ना निकालता तो क्या माँ को घर से निकाल देता? शुक्रिया अरशद इतनी जटिलताओं और तनावों को इतने सरल शब्दों में (एक ही वाक्य में) व्यक्त कर देने के लिये.

गौर से देखिये, अमर ज़िन्दगी से हारा हुआ इंसान नहीं है, उसने अपनी मर्जी से यह ’हार’ चुनी है अगर आप उसे हार कहें तो. अगर उसे अपने ’सही’ कहलाये जाने और किसी अपने की खुशी में से एक को चुनना हो तो वह बिना सोचे अपनों की खुशी चुनता है. ’गलत’ कहलाया जाना चुनता है. एक ’हारा हुआ आदमी’ कहलाया जाना चुनता है. यह एक ऐसे इंसान की कथा है जो अपनी मर्जी से एक ’आम’ ज़िन्दगी चुनता है. और दसविदानिया देखने के बाद मैं इस आम/ प्रिडिक्टिबल/ औसत सी ज़िन्दगी (और वैसी ही आम/ प्रिडिक्टिबल/ औसत सी मौत) को ’हार’ नहीं ’जीत’ कहूंगा.

विशेष तारीफ़ सरिता जोशी (माँ) के लिये. माँ जिन्हें यह परेशानी है कि टी.वी. के रिमोट (टाटा स्काई रिमोट!) में इतने सारे बटन क्यों होते हैं! माँ के लिये उनके बेटों का कहना है कि उन्हें आजतक कमीज़ के बटन के सिवा और कोई बटन समझ नहीं आया चाहे वो लिफ़्ट का बटन हो या घंटी का बटन. और यही माँ अपने बेटे की मौत की खबर सुनने के बाद पहली बार खुद लिफ़्ट से जाने की इच्छा प्रगट करती है. माँ कभी यह विश्वास नहीं करती कि उसका बेटा मरने वाला है (बेटे को भी यह विश्वास नहीं करने देती, जैसे उसका विश्वास ही मौत को जीत लेगा) लेकिन उनका खुद लिफ़्ट से नीचे जाने का फ़ैसला करना सच्चाई आपके सामने रख ही देता है. यह एक सीन इशारा कर देता है कि तमाम तांत्रिकों के चक्करों के बावजूद आख़िर में तो माँ भी जानती है कि क्या होने वाला है. जब अमर अपनी नयी कार में माँ को बैठाता है तो उनकी खुशी देखने लायक है. मैं यहाँ सरिता जोशी की ’ओवर-द-टॉप’ खुशी को फ़िल्म के सबसे अच्छे सीन के तौर पर याद रखूँगा.

फ़िल्म अपने कालक्रम को लेकर भी काफ़ी सजग है. अमर के दफ़्तर में चर्चा गरम है कि जब सभी टीम में अपने खिलाड़ी हैं (आया आई.पी.एल. का ज़माना!) तो सपोर्ट किसे करें? लेट 80s में बड़े होने वाले अमर और राजीव एक दूसरे के लिये ’गनमास्टर जी-नाइन’ और ’गनमास्टर जी-टेन’ हैं (जय हो ‘गरीबों के अमिताभ’ मिथुन की!) और नेहा-अमर की फ़्लैशबैक मुलाकात में पीछे ’मैनें प्यार किया’ का पोस्टर विशेष उल्लेख की मांग करता है. फ़िल्म में कुछ ख़ामियां भी हैं जैसे राजीव जुल्का (चटनी और फ़ुलका!) की पत्नी के रोल में सुचित्रा पिल्लई का नकारात्मक किरदार गैरज़रूरी था. जहाँ मौत जैसा नकारात्मक तथ्य आपके पास पहले से हो वहाँ फ़िल्म में बाकी सब सकारात्मक ही होना चाहिये. ’खोसला का घोंसला’ की तरह ही एक बार फ़िर पुरानी तस्वीरों ने (तस्वीर ने) फ़िल्म में एक अहम भूमिका निभायी है. मैं दसविदानिया देखकर अपनी बचपन की तस्वीरों को फ़िर याद करता हूं. इस बार बनस्थली जाउँगा तो ज़रूर कुछ साथ ले आऊँगा. पुरानी तस्वीरें फ़्रेम में बंद यादों की तरह होती हैं. फ़ोर बाय सिक्स/ पोस्टकार्ड साइज़/ पासपोर्ट साइज़ में कैद सुनहरी यादें.
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फ़िल्म के निर्देशक शशांत शाह और विनय पाठक से एक प्रदर्शन पूर्व की गयी बातचीत आप यहाँ पढ़ सकते हैं. प्रश्नकर्ता अपने ही दोस्त वरुण हैं. जैसा आप जानते हैं वरुण भी इस ’टीम’ का हिस्सा रहे हैं. आप वरुण की समीक्षा यहाँ देख सकते हैं.

रणवीर शौरी का होना या ना होना.

Finally… इतने इंतज़ार के बाद कल आख़िरकार Osian’s में रणवीर शौरी के दर्शन हो ही गये! उसके बिना Osian’s कुछ अधूरा-अधूरा सा लगता है. पिछली बार वो अपनी नई फ़िल्म मिथ्या के साथ यहाँ था. मिथ्या जो इस साल की सबसे उल्लेखनीय और जटिल फिल्मों में से एक बनकर उभरी है. मिथ्या जो मुझे उदय प्रकाश की ‘तिरिछ’ की याद दिलाती है. मिथ्या जिसे किसी एक श्रेणी में डालना मुश्किल है. रणवीर शौरी हमारे दौर के सबसे बेहतरीन कलाकारों में से एक है. इतना अपना लगता है कि उसके लिए ‘उनके’ लिखने का मन नहीं होता. मैं उसे हमारी पीढ़ी का प्रतिनिधि चरित्र मानता आया हूँ. जैसे मेले में खोया हुआ बच्चा. Lost Child. क्या कहें, अपना भूत भूल चुकी मेरी पीढ़ी का प्रतिनिधि चरित्र. कल सिरीफोर्ट की सीढियों पर बैठा वो फिर से उसी Lost Child जैसा लग रहा था. मीनाक्षी उसे देखकर बोली, “देखो मिहिर वो जो लड़का वहाँ सीढियों पर बैठा है वो तो…” और मैंने कहा, “हाँ रणवीर शौरी है.” और फ़िर हम दोनों ने एकसाथ कहा… Finally.

यहाँ मैं रणवीर का एक मिनी साक्षात्कार प्रस्तुत कर रहा हूँ. साभार Osian’s.

Q. क्या आपको ऐसा महसूस होता है कि Osian’s एक ख़ास तरह के सिनेमा को बढ़ावा देकर और फ़िल्म समारोहों से कुछ अलहदा भूमिका निभा रहा है?
रणवीर. Osian’s हमारे मुल्क़ में होने वाला सबसे जीवंत समारोह है. यहाँ दिखाई जाने वाली फिल्में और आने वाले दर्शकों का समूह मिलकर इसे एक बेहतर माहौल देते हैं.

Q. नई फ़िल्म जो आपको पसंद आई हो?
रणवीर. मुझे Orphanage पसंद आई. वैसे आजकल मुझे ज़्यादा फिल्में देखने का समय नहीं मिल पाता है.

Q. पुरानी हिन्दी फिल्मों में आपकी पसंद क्या है?
रणवीर. मैंने अपने कॉलेज के दिनों में ही गुरु दत्त, राज कपूर और अशोक कुमार को खोज लिया था.

Q. मिथ्या में आपके किरदार को दुनिया भर में वाहवाही मिली है. इस रोल के लिए आपकी तैयारी के बारे में कुछ बतायें.
रणवीर. मुझे रजत के साथ काम करने में मज़ा आता है. मेरे लिए यह एक ख़ास मौका होता है. उनके लिए काम सबसे पहले है. पैसा और वक्त उसके बाद आते हैं. मिथ्या की योजना रजत के पास पिछले दस सालों से थी. मैंने यह कहानी उस वक्त पढ़ी थी जब मैं मिक्स डबल्स की शूटिंग कर रहा था. क्योंकि यह इतने लंबे समय तक चलने वाली फ़िल्म थी इसलिए रजत इसे और ज़्यादा गहराई दे पाये. मिथ्या का किरदार एक डबल रोल नहीं था बल्कि यह तो एक ट्रिपल रोल था. एक बार किरदार की याददाश्त जाने के बाद किरदार का तीसरा हिस्सा शुरू हो जाता है. इसीलिए मुझे हर किरदार को अलग पहचान देनी ज़रूरी थी. एकबार याददाश्त जाने के बाद नया किरदार दो हिस्सों में विभाजित हो जाता है. एक है उसका दिमाग और दूसरा उसका शरीर जो दो अलग-अलग व्यक्तियों की स्मृतियाँ ढो रहे हैं.

Q. आपने My Blueberry Nights देखी. कैसी लगी?
रणवीर. मुझे यह पसंद आई. विंटेज वोंग कार वाई का जादू है. लेकिन उन्हें हॉलीवुड के अभिनेताओं के साथ काम करते देखना मज़ेदार था.

मिथ्या: खोई हुई पहचान की तलाश में

मैं जान जाता कि यह एक सपना है. लेकिन यह पता चल जाने के बावजूद मैं अच्छी तरह से जानता कि तब भी मैं अपनी इस मृत्यु से बच नहीं सकता. मृत्यु नहीं -तिरिछ द्वारा अपनी हत्या से- और ऐसे में मैं सपने में ही कोशिश करता कि किसी तरह मैं जाग जाऊं. मैं पूरी ताक़त लगाता, सपने के भीतर आँखें फाड़ता, रौशनी को देखने की कोशिश करता और ज़ोर से कुछ बोलता. कई बार बिलकुल ऐन मौके पर मैं जागने में सफल भी हो जाता.

माँ बतलाती कि मुझे सपने में बोलने और चीखने की आदत है. कई बार उन्होंने मुझे नींद में रोते हुए भी देखा था. ऐसे में उन्हें मुझे जगा डालना चाहिए, लेकिन वे मेरे माथे को सहला कर मुझे रजाई से ढक देती थीं और मैं उसी खौफ़नाक दुनिया में अकेला छोड़ दिया जाता था. अपनी मृत्यु -बल्कि अपनी हत्या से बचने की कमज़ोर कोशिश में भागता, दौड़ता, चीखता.”

उदय प्रकाश की कहानी तिरिछ का अंश.


दुनिया का सबसे बड़ा डर क्या है?
…सपने आपके भीतर के डर और इच्छाओं को जानने का सबसे बेहतर ज़रिया हैं. मुझे सबसे डरावना सपना वह लगता है जहाँ मैं अकेला रह जाता हूँ. मेरे दोस्त
, मेरा परिवार, मेरी दुनिया मुझसे बिछुड़ जाते हैं. मैं अनजान भीड़ के बीच होता हूँ या अपनी जानी-पहचानी जगहों पर अकेला होता हूँ. मुझे पहचानने वाला कोई नहीं होता. ऐसे में अक्सर मैं जागने की कोशिश करता हूँ. लेकिन कभी-कभी सपने के भीतर अचानक ऐसा लगता है कि यह सपना नहीं हकीक़त है और वह अहसास खौफ़नाक होता है. हाँ, दुनिया का सबसे बड़ा डर अकेलेपन का डर होता है. अपनी पहचान के खो जाने का डर होता है. अपनी दुनिया से बिछुड़ने का डर होता है.
इस नज़रिये से देखने पर
मिथ्या का दूसरा हिस्सा एक डरावना अनुभव है. वी.के. (रणवीर) बारबार इसे सपना समझकर जागने की कोशिश करता है. लेकिन वह सपना नहीं है. उसे समझ नहीं आता कि क्या सपना है और क्या सच? वह चिल्लाता हैतुमने कहा था कि कुछ नहीं बदलेगा.” और आख़िर में वह अपनी एकमात्र याद रही पहचान से भी ठुकराया जा चुका है. वी.के. एक ऐसा शख्स है जिसका सबसे डरावना सपना सच हो गया है.
दोस्तों को नायक की मौत पर कहानी का अंत एक त्रासद अंत लग सकता है लेकिन मैं इससे असहमत हूँ. वी.के. का अंत दरअसल उसके सपने का भी अंत है. उसकी ‘जागने’ की निरंतर कोशिश एक बंदूक की गोली उसके भेजे में जाने के साथ ही सफल हो जाती है. गोली लगने के साथ ही उसका खौफ़नाक सपना टूट जाता है और उसे एक फ्लैश में सब याद आ जाता है. उसकी आखिरी पुकार
सोनल में एक चैन, एक संतुष्टि, एक सुकून सुनाई देता है. यह त्रासद अंत नहीं. वी.के. एक कमाल का दोहराव रचते हुए एक परफैक्ट मौतमरता है जो फ़िल्म के पहले दृश्य से उसकी तमन्ना थी. मौत उसे अपनी खोई हुई पहचान, खोई हुई जिंदगी से जोड़ देती है.
मैं यह कहने में हिचकूंगा नहीं कि फ़िल्म पर रजत कपूर से ज्यादा सौरभ शुक्ला की छाप नज़र आती है. यह मिक्स डबल्स जैसी नहीं है और भेजा फ्राई जैसी तो बिलकुल नहीं है. हाँ रघु रोमियो के कुछ अंश यहाँ-वहां दिख जाते हैं. मरीन ड्राइव (नेकलेस) के फुटपाथ पर बैठे अथाह/अनंत समंदर की तरफ़ देखते और दारु पीते वी.के. की छवि सत्या के भीखू की याद दिलाती है. जैसा मदनगोपाल सिंह कहते हैं यह उत्तर भारत के छोटे शहरों से वाया दिल्ली (
NSD) होते मुम्बई आए लड़कों की पौध का दक्षिण भारत के उन्नत तकनीशियन निर्देशकों से लेखक के तौर पर मिलन से उपजा सिनेमा है. मिथ्या मुझे अनेक पूर्ववर्ती फिल्मों की याद दिलाती रही जिनमें से कुछ की चर्चा मैं यहाँ करना चाहूँगा.

सत्या– फ़िल्म पर RGV स्कूल की छाप साफ नज़र आती है. इसका सीधा कारण फ़िल्म से लेखक के रूप में सौरभ शुक्ला का जुड़ा होना है. यह मुम्बई के अंडरवर्ल्ड को देखने की नई यथार्थवादी दृष्टि थी जो सत्या में उभरकर सामने आई थी. यह मुम्बई के अंडरवर्ल्ड को देखने की नई यथार्थवादी दृष्टि थी जो सत्या में उभरकर सामने आई थी. विनय पाठक ने ओशियंस सिने फेस्ट में मिथ्या के प्रीमियर में कहा भी था कि डॉन लोग कोई चाँद से नहीं आए हैं. वे भी हमारे-आपके जैसे इंसान हैं. यह दृष्टि सौरभ शुक्ला, अनुराग कश्यप, जयदीप सहनी जैसे लेखकों की बदौलत आई थी और आज फैक्टरीकी बुरी हालत के पीछे इन लेखकों का अलगाव एक बड़ा कारण माना जा रहा है. मिथ्या में यह दृष्टि इंस्पेक्टर श्याम (ब्रिजेन्द्र काला) के किरदार में बखूबी उभरकर आई है. एक बेहतरीन अदाकार जिसके काम की पूरी तारीफ ज़रूरी है बिना किसी हकलाहट के!

डिपार्टेड– मार्टिन स्कोर्सेसी की यह थ्रिलर दो परस्पर विरोधी योजनाओं के उलझाव से निकली कहानी है. मुझे वी.के. की दुविधा में लिओनार्दो की दुविधा का अक्स दिख रहा था. lost identities की कहानी के रूप में और अपनी खोई पहचान वापस पाने की लड़ाई के तौर पर यह दोनों फिल्में साथ रखी जा सकती हैं. कुछ और नाम भी याद आ रहे हैं नेट और बरमूडा ट्राएंगल जैसे. कभी विस्तृत चर्चा में बात करेंगे.

दिल पे मत ले यार– यह मिथ्या की नेगेटिव है. इसमें सपना खौफनाक नहीं है, सपने के टूटने के बाद की असल तस्वीर खौफनाक है. हिन्दी सिनेमा का सबसे त्रासद अंत. मिथ्या का अंत मौत के बावजूद सुकून देता है. दिल पे मत ले यार का अंत कड़वाहट से भर देता है. असल जिंदगी अपनी तमाम ऐयाशियों के साथ किसी भी खौफनाक सपने से ज़्यादा भयावह है. मिथ्या के अंत में नायक की मौत सुकून देने वाली है. सुकून इस बात का कि आखिरकार वह अपने भयावह सपने की कैद से आजाद हो गया है. इसके विपरीत दिल पे मत ले यार के अंत में दुबई में बैठे अरबपति डान रामसरन और गायतोंडे सफलता के नहीं, मौत के प्रतीक हैं. मासूमियत की मौत, भरोसे की मौत, इंसानियत की मौत. मुम्बई शहर को आधार बनाती दो बेहतरीन फिल्में जो उत्तर भारत से आए दो युवकों के भोले सपनों और महत्वाकांक्षाओं की किरचें बिखरने की कथा को मायानगरी के वृहत लैंडस्कैप में चित्रित करती है. मुम्बई शहर पर चर्चित और प्रशंसित फिल्में कम नहीं लेकिन यह दोनों अपेक्षाकृत रूप से कम चर्चित फिल्में 90 के बाद बदलते महानगर और उसके जायज़- नाजायज़ हिस्सों पर तीखा कटाक्ष हैं. इन्हें उल्लेखनीय हस्तक्षेप के तौर पर दर्ज किया जाना चाहिए.

अंत में रणवीर शौरी. मेरी पसंद. उसमें मेरे जैसा कुछहै. मिथ्या में पहले आप उसके लिए डरते हैं, फ़िर उसके साथ डरते हैं और अंत में उसकी जगह आप होते हैं और आपका ही डर आपके सामने खड़ा होता है. यह साधारणीकरण ही रणवीर के काम की सबसे बड़ी बात है. कुछ दृश्यों में उसका काम आपपर हॉंटिंग इफेक्ट छोड़ जाता है. जब भानू (हर्ष छाया) उसे अपने भाई का कातिल समझ कर मार रहा है वहां उसकी पुकार “भानू, मैं तेरा भाई हूँ.” एक ना मिटने वाला निशान छोड़ जाती है. एक ही फ़िल्म में हास्य और त्रासदी के दो चरम को साधकर उसने काफी कुछ साबित कर दिया है.

मिथ्या देखा जाना चाहती है. उसकी यह चाहत पूरी करें.